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Yoga Therapy-योग चिकित्‍सा

योग साधना में रोग को मनुष्‍य का विघ्‍न माना गया है चाहे सामाजिक हो अथवा आध्‍यात्मिक, स्‍वस्‍थता के बिना हम कोई भी कार्य ठीक से नहीं कर सकते। आयुर्वेद भी यह कहता है


एक मनुष्‍य की आत्‍मा, मन इन्द्रियों की प्रसन्‍नता के साथ-साथ मनुष्‍य के अंदर के त्रिदोष वात, कफ और पित्‍त का समत्‍व आवश्‍यक है यह समत्‍व ही योग है।



हठ योग के अनुसार भौतिक शरीर के दोषों को दूर करने के लिए षटकर्म आसन, प्राणायाम, मुद्रा, धारणा, ध्‍यान आदि अनिवार्य हैं। इनसे व्‍यक्ति अपने अंदर के त्रिदोषों में समत्‍व प्राप्‍त कर सकता है। घौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलिक तथा कपालभांति इन छ: क्रियाओं को षटकर्म कहते हैं।

आसन का अभ्‍यास शरीर से जडता, आलस्‍य एवं चंचलता को दूर करता है। यह संपूर्ण संस्‍थान एवं प्रत्‍येक अंग को पुष्‍ट बनाने के लिए होता है। इन अभ्‍यास से शरीर के अंगों के सभी भागों में एवं सूक्ष्‍म, अति सूक्ष्‍म नाडियों में रक्‍त पहुँचता है। सभी ग्रंथीयॉं सुचारू रूप से कार्य करती है। स्‍नायु संस्‍थानों में शक्ति संचारित होने के कारण साधक को चिंता नहीं सताती। शरीर का स्‍वस्‍थ मस्तिष्‍क, स्‍नायु संस्‍थान, हृदय, फेफडे तथा पेट आदि पर निर्भर रहता है इसलिए व्‍यक्ति को चुनाव करते समय उन आसनों का समावेश करना चाहिए जिससे सभी अंग पुष्‍ट रहें। ध्‍यान के उपयोगी आसन पदमासन, सिद्धासन इसलिए कहे जाते हैं क्‍योंकि इन आसनों में ध्‍यान या जप में बैठने पर शरीर में साम्‍यभाव, निश्‍चलता, पवित्राता स्थिरता जैसे गुणों का समावेश होता है। जिससे व्‍यक्ति व्‍यवहारिक, भौतिक जीवन में सरलता से जीवन यापन करता है।

आरोग्‍य की दृष्टि से हलासन भुजंगासन, मत्‍स्‍येन्‍द्र, धनुरासन, शशांक आसन, पश्चिमोतनासन, मार्जरासन, शलभासन गोरक्ष सर्वांग आदि करना चाहिए, जिससे शरीर में लचीलापन, स्थिरता, संतुलन, सहनशीलता आती है। जिस व्‍यक्ति को किसी विशेष अंग का रोग हो उस पर दबाव डालने वाले आसन नहीं करने चाहिए। जैसे यदि पेट में घाव हो या जो स्त्रियॉं मासिक धर्म से हों उन्‍हें आसन नहीं करना चाहिए। जिस आसन का दबाव जिस नाडी पर पडता है आसन करते समाय उसी पर ध्‍यान केन्द्रित हो। आसनों के साथ प्रतियोगी आसनों को अवश्‍य करना चाहिए, जैसे पश्चियोतानासन के साथ भुंजगासन, शलभासन, आदि हस्‍तपासन का प्रतियोगी चक्रासन है। सूक्ष्‍म यौगिक क्रियाऍं आसनों को सरलता से करने में सहायता प्रदान करती हैं। आसनों के पूर्व सूर्यनमस्‍कार करना अति उत्‍तम होता है।

प्राणायाम अभ्‍यास

आसनों के साथ-साथ प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाम के अभ्‍यास से शरीर के दोषों का निराकरण होता है। प्राणायाम से कोष एवं सूक्ष्‍म शरीर निरोग तथा पुष्‍ट बनता है। नाडी शोधन का अभ्‍यास करने के पश्‍चात ही कुम्‍भक करना चाहिए। प्राणायाम के सभी अभ्‍यास युक्ति पूर्ण शनै: शैन: करना चाहिए। प्रत्‍येक कुम्‍भक की अपनी दोष नाशक शक्ति होती है, इसजिए दोषों के अनुसार प्राणायाम का अभ्‍यास करना चाहिए।

जैसे शीतली प्राणायाम, अर्जीण, कफ, पित्‍त, प्राणायाम पित्‍तवर्धक, वृद्धावस्‍था को रोकने वाला, कृमिदोष का नाश करने वाला है। उज्‍जायी प्राणायाम स्‍वास्‍थ्‍य एवं पुष्टि के लिए होता है। भास्त्रिका प्राणायाम वात, पित्‍त, कफ त्रिदोषों के लिए होता है।

योग चिकित्‍सा में मुद्राऍं में भी अपना महत्‍व रखती हैं। मुद्राएँ तथा बंध से अनेक रोगों पर विजय पायी जा सकती है। मुद्राओं और बंध के अभ्‍यास में महामुद्रा, खेचरी उड्डीयन बंध, जालंधर बंध, मूलबंध एवं विपरीत करणी मुख्‍य हैं। महामुद्रा क्षय, कुष्‍ठ, आवर्त, अजीर्ण, रोगों में लाभ पहुँचाती है। खेचरी मुद्रा के अभ्‍यास से शरीर में अमृतत्‍व की वृद्धि होती है। उड्डीयान बंध का अभ्‍यास उदर एवं नाभिकेन्‍द्र के नीचे के रोगों को ठीक करता है। जालंधर बंध से कण्‍ठ के रोगों का नाश होता है। मूलबंध से गुदा एवं जननेन्द्रियों पर रक्‍त पहुँचता है। सभी ग्रंथियों पर तथा प्राण एवं अपातन पर नियंत्रण प्रदान करता है। मूलबंध का अभ्‍यास नित्‍य ही कर लेना चाहिए। इससे स्थिरता का गुण भी विकसित होता है। विपरीत करणी के अभ्‍यास से युवावस्‍था बनी रहती है।

ध्‍यान साधना

रोगों का दूर करने के लिए सकारात्‍मक चिंतन बडा ही महत्‍वपूर्ण है। ध्‍यान से शरीर, प्राण, मन, हृदय एवं बुद्धि में शांति, निर्मलता पवित्रता आती है। सदा ही प्राणी मात्र का कल्‍याण का विचार करने से स्‍वयं को सुख एवं शांति मिलती है। व्‍यक्ति दूसरों के सुख एवं निरोगी रहने की कामना करता है तो स्‍वयं भी निरोगी एवं सुखी रहता है।
रोग होने पर व्‍यक्ति उसका उपचार तो करे, परंतु उस को लेकर चिंता न करे। औषधियों से अधिक मन की संकल्‍प शक्ति एवं प्रज्ञाबन से रोगों का निदान होता है। इसके लिए योगिक क्रियाओं के साथ-साथ उन क्रियाओं को त्‍यागना चाहिए जिससे रोग बढते हों। अपने स्‍वास्‍थ्‍य, परिस्थिति के अनुसार पथ्‍य, सत्‍कर्म, सदाचार का सेवन करना चाहिए। सम्‍पूर्ण दु:खों का कारण तमोगुण जनित अज्ञान, लोभ, तथा मोह होता है। त्रिगुण के प्रभाव तथा अज्ञान के बंधन से मुक्‍त होने के लिए योग जैसा अति उत्‍तम साधन हमारे पास है। दैनिक जीवन में हम इसका समावेश करके आनंद, स्‍वास्‍थ्‍यता, एवं भयरहित विचारों की प्राप्‍ति कर सकते हैं।

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