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Touch Therapy-स्‍पर्श चिकित्‍सा

स्‍वस्‍थ शरीर में मन का वास होता है। यदि शरीर ठीक नहीं है तो किसी भी कार्य में मन नहीं लगता। अनेक शंका, कुशंकाओं से और अधिक तनाव होता है। उसे दूर करने कि लिए पहले शरीर स्‍वस्‍थ होना आवश्‍यक है। 


प्राचीन आध्‍यात्मिक पद्धतियों में स्‍वर्श चिकित्‍सा का अत्‍यधिक महत्‍व माना गया है। हमारे व्‍यवहार में कई बार हम देखते हैं कि रोग संत महात्‍माओं के हाथ रखने से ठीक हो जाते हैं अथवा वे अपनी आंतरिक शक्ति से रोगों को दूर करते हैं। स्‍पर्श चिकित्‍सा साधारण सर्दी, जुकाम रोगों से लेकर घातक रोग जैसे कैंसर तक में लाभकारी सिद्ध हुआ है।

स्‍पर्श चिकित्‍सा प्राण शक्ति पर आधारित है। स्‍पर्श चिकित्‍सा जिस ऊर्जा से होती है वो वही शक्ति है जो ब्रह्माण्‍ड में प्रत्‍येक जीव की सृष्‍टी करती है, उपका पोषण करती है। स्‍पर्श चिकित्‍सा के बारे में ऋगवेद में उल्‍लेख मिलता है। हमारे यहॉं के लोग धीरे-धीरे इसे भूल गये और जापान में जाकर इसका प्रचार-प्रसार हुआ। यह हमारी संस्‍कृति‍ का अंश है। चीन में इसी ची कहा जाता है तो रूसी लोग इसे बायोप्‍लामिज्मिक ऊर्जा कहते हैं और जापान में यह रेकी नाम से प्रसिद्ध है।

नकारात्‍मक ऊर्जा को दिव्‍य शक्ति व्‍दारा नष्‍ट किया जा सकता है। यह ऊर्जा सहस्‍त्रार से प्रवेश करती हुई आज्ञाचक्र, विशुद्धि चक्र और फिर अनाहत चक्र जो कि हमारे हृदय कि पीछे स्थित है उसे चक्र के माध्‍यम से हथेलियों में उतरती है। स्‍पर्श चिकित्‍सा एक आध्‍यात्मिक चिकित्‍सा पद्धति‍ है। इस पद्धति से जो चिकित्‍सक है उसकी अध्‍यात्‍म शक्ति तो बढती है साथ ही जिस पर प्रयोग किया जा रहा है, उसकी भी शक्ति बढती है।

प्रारंभ में जब रोगी को यह चिकित्‍सा पद्धति दी जाती है जो अनेक मनोविकार दूर होना प्रारंभ होते हैं। वे निकलते ही दो ही दिन बाद व्‍यक्ति स्‍वयं को हल्‍का अनुभव करने लगता है। रोगी को जितनी ऊर्जा की आवश्‍यकता है उतनी ही ऊर्जा रोगी चिकित्‍सक की हथेलियों से खींचता है। स्‍वस्‍थ होना रोगी की इच्‍छा शक्ति पर निर्भर करता है। स्‍पर्श चिकित्‍सा की विशेषता है कि रोगी सामने ही दूर से बैठकर भी वह चिकित्‍सा कर सकता है।

स्‍पर्श चिकित्‍सा से मानसिक उत्‍थान संभव है। प्रत्‍येक मनुष्‍य की अपनी एक आभा होती है और हर एक मनुष्‍य के तरंगों का स्‍तर अलग होता है। शरीर के अंदर और बाहर जो विद्युत चुम्‍बकीय, उसके ऊपर हमारे आचार-विचार रूप सभी निर्भर करते हैं। आज के वातावरण में भौतिक स्‍तर पर तरंगे निम्‍न स्‍तर की हो गई हैं, जिसके कारण मन में शंका उत्‍पन्‍न होती है। सूक्ष्‍म शरीर में तरंगे बहती है तो नकारात्‍मक विचार समाप्‍त हो जाते हैं। स्‍पर्श चिकित्‍सा से मन की तरंगे बढाई जा सकती हैं। यदि कोई एक हजार स्‍तर पर स्‍फुरण करता है। तो नियमित रूप से स्‍पर्श चिकित्‍सा करके 2800, 3000 तक ऊँचा उठाया जा सकता है। इससे कुण्‍डलीनी शक्ति जागृत होती है। और सहस्‍त्रार चक्रपर जा मिलती है, तब व्‍यक्ति आनंद का अनुभव करता है। इस अवस्‍था में आकर व्‍यक्ति बहुत कुछ दिव्‍य अनुभव प्राप्‍त करता है।

मनुष्‍य का स्‍पर्श चिकित्‍सा से मानसिक संतुलन बना रहता है। मन शांत हो जाता है तथा नकारात्‍मक भावना से मुक्ति मिल जाती है। उसका मनोबल बढता है। स्‍पर्श चिकित्‍सा से आत्‍म संतुलन बढता है। जीवन को निभाने के लिए जो सम्‍पर्क और संबंध है वही रह जाते है बाकी स्‍पर्श चिकित्‍सा अधिक सहायक रही है। ध्‍यान के माध्‍यम से व्‍यक्ति को सही या गलत निर्णय लेने में सहायता मिलती है।

स्‍पर्श चिकित्‍सा से किसी भी चीज की ऊर्जा को बढाया जा सकता है। कोई भी शुभ काम निर्विघ्‍न सम्‍पन्‍न किया जा सकता है। कई बार शक्तिहीन वस्‍तुओं पर भी स्‍पर्श चिकित्‍सा काम करती है। अपनी नौकरी, पढाई, व्‍यवसाय अन्‍य किसी भी अच्‍छी भावनाओं को स्‍पर्श चिकित्‍सा कि माध्‍यम से और अधिक लाभान्वित किया जा सकता है। पुराने समय में जब कोई चिकित्‍सा पद्धति उपलब्‍ध नहीं थी तब यह चिकित्‍सा पद्धति ही उपयोग में लाई जाती थी। संत, तपस्‍वी इनका प्रयोग करते थे। किसी भी महापुरूष से सन्‍मुख जाते समय हम उसे नमस्‍कार करते हैं। प्रत्‍येक के हथेलियों के छोर पर (उंगलियों के पोर पर) आठ हजार स्‍तर पर तरंगे स्‍फूरण करती हैं, जब हम हथेलियों को जोडते है तो वह दुगनी स्‍फूरण करती हैं, इसका असर तुरंत हमारे दिमाग शरीर और ग्रंथियों पर पडाता है। मन शांत हो जाता है। सद्विचार आने लगते हैं। और हम सब को सन्‍मान से स्‍वीकार करने लगते हैं। किसी भी चीज की स्‍वीकृती के लिए हमें अपने मन की स्‍वीकृती आवश्‍यक है।

यह केवल सोचने से नहीं होती केवल हाथ जोडने से ही शक्ति तरंगे दुगनी हो जाती हैं। हाथ जोडने पर हम उनका चरण स्‍पर्श करते हैं। स्‍पर्श करते समय हमारा मन यह कहता है कि तुम इस महात्‍मा के चरण धूल के बराबर हो। मन का अंहकार नष्‍ट हो जाता है। गुरू या तपस्वियों की शक्ति हम अपने अंगूठे का स्‍पर्श करके प्राप्‍त कर सकते हैं। उनकी ऊर्जा को हम अपने अंदर ले सकते हैं।
महापुरूष की शक्तियॉं तभी हमें प्राप्त हो सकती हैं, जब हम पूर्णतया खाली हों। संतों की, तपस्वियों की शक्ति जब हमारे अंदर पहुँचती है, तो हमारे अंदर परिवर्तन होना शुरू होता है। मन शांत होता है, सकारात्‍मक ऊर्जा बढती है। आज की जीवन शैली में हर व्‍यक्ति व्‍यस्‍त है, वह न तो ध्‍यान लगा पाता है, न साधु-संतों के पास बिना किसी लालच के जाता है, इसलिए तनाव कि स्थितियॉं, गलत मार्गदर्शन, अहंकार का अस्तित्‍व असे मिलता है।

अहंकार को त्‍यागने के लिए हमें शास्‍त्रों की, आध्‍यात्मिक क्रियाओं को अपनाना पडेगा। आत्‍मोद्वार के लिए गुरू का मार्गदर्शन गुरू का आर्शिवाद, उनके हाथों का प्रसाद और चरणामृत ये सब स्‍पर्श चिकित्‍सा के ही अंग है। स्‍पर्श चिकित्‍सा पद्धतियों में सरलतम पद्धति है। नाम के अनुसार इसमें स्‍पर्श से ही चिकित्‍सा होती है। इस पद्धिति को किसी भी चिकित्‍सा के साथ उपयोग में लाया जा सकता है। चाहें आयुर्वेदिक दवाईयॉं सेवन कर रहे हों, ऐलोपैथी या होम्‍योपैथी की औषधियॉं रोगी ले रहा हो इससे किसी भी औषधियों का विपरित प्रभाव नहीं पडता है।

जापान की रेकी चिकित्‍सा स्‍पर्श चिकित्‍सा ही है। रेकी पद्धति डॉ. मिकाओं उसुई ने प्रारम्‍भ की। 'रे' का अर्थ है ईश्‍वरीय शक्ति और 'की' का अर्थ है प्राण ऊर्जा। डॉ. उसुई कि अनुसार ऊर्जा स्‍त्रोत का ज्ञान मानव को सृष्टि के आरंभ में ही हो चुका था। भारत के तपस्वियों मुनियों ने इसे अनुभव किया फिर यह आम व्‍यक्ति तक पहुँची। भारत, तिब्‍ब्‍त, चीन से होते हुए यह जापान पहुँची, डॉ. उसुई पहले ईसाई थे जिन्‍होंने बौद्ध धर्म के साथ इस ज्ञान की दिक्षा ली। जापान में उसुई इसके जनक हैं परंतु टोक्‍यों में रेकी चिकित्‍सालय की स्‍थापना डॉ. चुजीरो हयाशिकों ने की।

रेकी चिकित्‍सा भी यह मानती है कि आत्‍मा, परमात्‍मा में विश्‍वास, हठ, इच्‍छा शक्ति, ईमानदारी, संयम, त्‍याग, वि‍नम्रता, सत्‍साहस माधुर्य आदि प्रवृत्ति के कारण व्‍यक्ति स्‍वस्‍थ जीवन यापन कर सकता है। इसमें मुख्‍यत: पॉंच सिद्धांतो को बताया गया है जिसका संकल्‍प नित्‍य ही व्‍यक्ति को लेना है। पहला आज में क्रोध नहीं करूँगा। आवेश में आकर व्‍यक्ति अनाप शनाप बकता है वह वाणी द्वारा, अपने कार्यों द्वारा स्‍वयं के मार्ग में ही कॉंटे बोता रहता है। दूसरा सिद्धांत है कि केवल आज में चिंता नहीं करूंगा। चिता तो शव को जलाती है, परंतु चिंता जीवित व्‍यक्तियों को जलाती है, भविष्‍य जो आया नहीं उसकी चिंता मत करों। जो बीत गया है उसकी चिंता मत करो क्‍योंकि वह लौटकर आने वाला नहीं है। तीसरा सिद्धांत है परम सत्‍ता का आभार व्‍यक्‍त करना। आज तो भी ज्ञान, मान सम्‍मान, यश, पद, बल, धन, एश्‍वर्य मेरा है, उसे परिजन, परिश्रम, बुद्धि, चतुराई और इन्द्रियों द्वारा प्राप्‍त किया, परंतु यह दिया मुझे परमात्‍मा ने ही हैं। अत: मुझे उस परमसत्‍ता का आभार मानना चाहिए।

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