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Science In Ancient Indian-प्राचीन भारतीय विज्ञान

देश में सर्वसाधारण लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि विज्ञान पश्चिम की देन है। परन्तु २० वीं सदी के प्रारम्भ में आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय, ब्रजेन्द्रनाथ सील, जगदीशचन्द्र बसु, राव साहब वझे आदि विद्वानों ने अपने गहन अध्ययन के द्वारा सिद्ध किया कि भारत मात्र धर्म दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं अपितु विज्ञान व तकनिक के क्षेत्र में भी अग्रणी था। डॉ. प्रफुल्लचन्द्र राय की "हिन्दू केमेस्ट्री", बृजेन्द्रनाथ सील की "दी पाजेटिव सायंस ऑफ एनशियेंट हिन्दूज" तथा धर्मपालजी की "इंडियन सायन्स एण्ड टेकनॉलाजी इन एटीन्थ सेन्चुरी" में भारत में विज्ञान व तकनिकी परम्पराओं उल्लेख किया गया है। विश्व के सबसे पुराने ग्रंथ वेदों में प्रकृति के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कहा गया है। हजारों वर्षों तक जो देश जगद्गुरु व सोने की चिडिया रहा उस पर पिछले १५०० वर्शो में हुए बर्बर आक्रमणों और १९० वर्शो के अंग्रेंजो शासन में देश का इतना आर्थिक शोशण हुआ कि सोने की चिडिया कंगाल हो गई। इस कारण आज हमारा देश दुनिया के देशों की पंक्ति में १२४ वे स्थान पर है। आज जिस देश में विज्ञान जितना विकसित होगा, जिसके पास जितनी उन्नत व आधुनिक तकनिक होगी वह दुनिया के रंगमंच पर उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ पायेगा।

प्राचीन भारत में विज्ञान :-

वैदिक काल से ही भारत में विज्ञान के कई क्षैत्र विकसित थे। भौतिकी, रसायन, वनस्पति शास्त्र, कृशि, गणित, नक्षत्रविज्ञान, जीवविज्ञान, आयुर्वेद, धातुविज्ञान और विभिन्न कला कौशल भी अध्ययन व प्रयोग का क्षेत्र था। जब वेद, उपनिशद्, आदि प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कुछ घटनाएं वैज्ञानिक विकास का आभास देती है। जैसे उपमन्यु की नेत्र ज्योति अश्विनी कुमारों ने वापिस लाई थी। शाण्डिली के पति की मृत्यु पर अनुसूया उसे पुन: जीवित कर देती है। विभिन्न देवताओं के अंतरिक्षयान, दिव्यास्त्रों का वर्णन, रामायण में इच्छानुसार चलने वाले पुष्पक विमान आदि पढते हैं तो एक विकसित सभ्यता का आभास होता है। परन्तु कोई ठोस प्रमाण इनकी तकनिकी जानकारी के प्राप्त नहीं है। परन्तु कुछ ग्रंथ उपलब्ध है जो विज्ञान की प्रगति के प्रमाण देते है। भृगु अपनी संहिता में १० शास्त्रों का उल्लेख किया है। ये हैं कृषि, जल, खनिज, नौका, रथ, अग्नियान, प्राकार, नगर, और यंत्र शास्त्र।

विद्युत शास्त्र :- शक संवत १५५० के अगस्त्य संहिता में कॉपर सल्फेट और कॉपर प्लेट और जिंक एमलगम के साथ पारा मिलाकर विद्युत उत्पन्न करने की विधि बताई है।

यंत्र विज्ञान :- महर्शि कणाद के वैशेशिक दर्शन में कर्म यानि मोशन को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेशण किया है। डॉ एन. जी. डोंगरे ने अपनी पुस्तक “जीम चीलेपबे” में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दि में लिखे गये प्रशस्तपाद में वेग संस्कार जो कि १६७५ में न्यूटन द्वारा खोजे गये गति के नियमों के समान ही है। राव साहब के. वी. वझे ने ११५० ई. में सम्पादित ग्रंथ ‘समरांगण सूत्रधार’ का विश्लेषण करने पर पाया कि इसमें एक विकसित यंत्रज्ञान दिया है।

धातु विज्ञान :- धातु विज्ञान का भारत में प्राचीन काल से ही व्यावहारिक जीवन में उपयोग होता रहा है। सोना, लोहा, तांबा, सीसा, टीन एवं कांसा आदि का उपयोग बर्तन आदि बनाने के साथ ही चरक सुश्रूत नागार्जुन आदि ने स्वर्ण रजत ताम्र लौह अभ्रक पारा आदि से औषधियाँ बनाने की विधि का वर्णन अपने ग्रंथों में किया है। नागार्जुन ने अपने ग्रंथ रसरत्नाकर में धातु परिश्करण की आसवन भंजन आदि विधियों का वर्णन किया है। कच्चे जस्ते से शुद्ध जस्ता प्राप्त करने की आसवन की विधि ईसा पूर्वचौथी शताब्दि में ही भारत में प्रचलित थी इसके प्रमाण राजस्थान के जवर क्षेत्र की खुदाई में मिलते हैं। भारतीय इस्पात की श्रेष्‍ठता के अनेक उल्लेख मिलते यहॉं की तलवारें अरब एवं फारस में प्रसिद्ध थी। दिल्ली के निकट महरौली में खडा लौह स्तम्भ १६०० से वर्शो से बिना जंग लगे आज भी खडा है जो यहॉं के प्रगत लौह उद्योग का जीवंत प्रमाण है। मिश्र धातु बनाने की विधि भारतीय ३००० वर्श पूर्व से ही जानते थे।

विमान शास्त्र :- विमान विद्या अत्यंत प्राचीन समय से ही भारत में बहुत ही प्रगत अवस्था में था। रामायण महाभारत एवं पुराणों में विमान के उपयोग का उल्लेख है परन्तु उनकी निर्माण तकनिक के बारे में कोई जानकारी नहीं है, परन्तु भारद्वाज मुनि का विमान शास्त्र आज भी उपलब्ध है। जिसका अध्ययन न केवल भारत में अपितु विश्व में हो रहा है। जिसमें अतिउन्नत विमान तकनिक का उल्लेख किया गया है। अपने ग्रंथ में भारद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का पायलट जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपडे, विमान के पूर्जे, उर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया है। बी. एम. बिरला साइंस सेंटर हैदराबाद के डायरेक्टर डॉ. बी. जी. सिद्धार्थ ने विमानशास्त्र में वर्णित ३ मिश्र धातुएं तमोग्रभ लौह, पंच लौह, और आरर बनाने में सफलता पाई है। उन्होंने कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं के निर्माण हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के निति‍ निर्धारक सोचेंगे तो यह देश के भविश्य के विकास की दुश्टि से अच्छा होगा।

नौका शास्त्र :- वर्तमान में भारतीय नौ सेना का ध्येय वाक्य है ‘शं नो वरुण:’ अर्थात् जल देवता हम पर कृपालु हो। समुद्र यात्रा भारत वर्श में प्राचीनकाल से प्रचलित रही है। गुजरात में लोथल में हुई खुदाई से प्रमाण मिलता है कि ई. पूर्व २४५० के आस पास बने बंदरगाह द्वारा ईजिप्त के साथ सीधा सामुद्रिक व्यापार होता था। ५ वी सदी में वराहमिहिर कृत बृहत् संहिता में तथा ११ वी. सदी के राजा भोजकृत युक्ति कल्पतरु मेंजहाज निर्माण पर प्रकाश डालागया है। भोज के अनुसार जहाज में लोहे का प्रयोग न किया जावे क्योंकि समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो सकती है।



गणित शास्त्र :- भारत गणित शास्त्र का जन्मदाता है ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है। यूरोप कह सबसे पुरानी गणित की पुस्तक ‘कोडेक्स विजिलेंस’ जो स्पेन की राजधानी मेंड्रिड के संग्रहालय में रखी है। इसमें लिखा हैं कि गणना के अंको से यह सिद्ध होता है कि हिन्दुओं की बुद्धि पैनी थी तथा अन्य देशगणना व ज्यामिति व अन्य विज्ञान में उनसे काफी पीछे थे। नौ अंको और शून्य के संयोग से अनन्त गणनाएँ करने की सामर्थ्य और उसकी दुनिया वैज्ञानिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका की वर्तमान युग के वैज्ञानिक लाप्लास तथा अल्बर्ट आंइस्टीन ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। दशमलव भी भारत ने विश्वविज्ञान को दिया है। अत: कहा जाता है कि आज तक के सभी आविष्‍कार एक पलडे में और शून्य को दूसरे में रखा जाये तो भी शून्य का पलडा ही भारी होगा। बीज गणित एवं रेखा गणित की जन्मस्थली भी भारत ही है। बीज गणित अव्यक्त गणित कहलाता था। और प्राचीन काल में यज्ञों की वेदियां रेखा गणित के सूत्रों पर आधारित बनती थी। क्योकिं विभिन्न प्रकार के यज्ञों हेतु भिन्न-भिन्न आकर प्रकार की वेदियां बनाई जाती थी परन्तु क्षेत्रफल समान होता था। पायथागोरस से कम से कम १००० वर्श पूर्व ही बोधायन ने अपने शुल्ब सूत्र में यही प्रमेय दिया है। आज से १५०० वर्श पूर्व आर्यभट्ट ने पार्ठ का मान ३.१४१६ बताया। पुरी के शंकराचार्य आचार्य भारती कृश्ण तीर्थ ने वैदिक गणित के १६ मुख्यसूत्र एवं १३ उपसूत्र बताए जिनसे गणना करना काफी सरल है।

वनस्पति विज्ञान :- वैदिक काल से ही भारत में प्रकृति के निरीक्षण परीक्षण एवं विश्लेशण की प्रवृति रही है। अथर्ववेद में पौधों को आकृति तथा अन्य लक्षणों के आधार पर सातउपविभागों में बांटा गया १. वृक्ष २.तृण,३. औशधि ४. गुल्म, ५. लता ६. अवतान ७. वनस्पति। पौधों में भी जीवन है ये तथ्य हजारों वर्षों से हम जानते हैं। इसी पर आधुनिक वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु शोध प्रस्तुत किया एवं उपकरणों से इसे सिद्ध भी किया। महामुनि पाराशर द्वारा रचित ग्रंथ वृक्ष आयुर्वेद में बीज से वृक्ष बनने तक का अति रोचक वैज्ञानिक विश्लेशण कर वर्णन किया है। चरक संहिता में वनस्पतियों का ४ प्रकार का वर्गीकरण किया हैं।

१. जिनमें फूल के बिना फलों की उत्पत्ति होती है - कटहल, गूलर
२. वानस्पत्य :- जिनमें फूल के बाद फल लगते हैं - आम, अमरुद
३. औषधि :- जो फल पकने के बाद स्वयं सूख कर गिर पडे उन्हें औषधि कहते हैं - जैसे गेंहूँ, जौ, चना
४. वीरुध :- जिनके तन्तु निकलतें है जैसे - लताएं बेल आदि।

इसी प्रकार सुश्रुत ने भी अपने वर्गीकरण किया है। पेड़ द्रव द्वारा आहार लेते है, यह तथ्य भारतीय जानते थे अत: उन्हे पादप कहा जाता है, अर्थात जो मूल से पानी पिता है। कृषि भी हमारे देश में विज्ञान के रुप में विकसित हुई। मौर्य राजाओं के काल में कौटिल्य अर्थशास्त्र में कृषि, कृषि उत्पादन आदि को बढावा देने हेतु कृषि अधिकारी की नियुक्ति का वर्णन मिलता है। कृषि हेतु सिचांई की व्यवस्था विकासित की गई। दो प्रजातियों को मिलाकर नई प्रजाति के निर्माण की ग्राफटिंग विधि वराहमिहिर ने अपनी पुस्तक वृहत् संहिता में किया है।

स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शास्त्र :- चिकित्सा विज्ञान का इतिहास भारत में काफी पुराना है। पुराणों में अश्विनीकुमार देवताओं के चिकित्सक के रुप में प्रसिद्ध है। गणेश जी के जन्म की कथा से सब परिचित है। च्यवन ऋषि की नष्‍ट हुई ज्योति को पुन: लौटाई। अश्विनी कुमारों से यहविद्या इन्द्र को और इन्द्र से भारद्वाज ऋषि ओर उनसे आत्रेय पुनर्वास उनसे अग्निवेश भेल आदि कोयहज्ञान प्राप्त हुआ और आगे भी यह परम्परा चलती रही। इस परम्परा को दो भागों में विभाजित किया गया १. धन्वन्तरी २ आत्रेय।

धन्वन्तरी परम्परा के प्रमुख आचार्य सुश्रुत हुए जिनकी सुश्रुत संहिता प्रसिद्ध है।

आत्रेय परम्परा के प्रमुख आचार्य चरक हुए जिनकी चरक संहिता प्रसिद्ध है।

आचार्य सुश्रुत को विश्व का प्रथम शल्य चिकित्सक माना जाता है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में दिल, पेट तथा वृक्कों के विकारों का वर्णन दिया है। वैदिक काल के शल्य चिकत्सिक मस्तिष्‍क की शल्य क्रिया में निपुण थे। शल्य क्रिया के क्षेत्र में बौद्ध काल में भी तीव्र गति से प्रगति हुई। विनय पिटक के अनुसार राजगृह के श्रोष्‍ठी के सिर में पडें कीडों को शल्य चिकित्सा द्वारा निकाला गया और उसके बने घावों को भी ठीक किया था। सुश्रुत संहिता में १२५ प्रकार के शल्य चिकित्सकीय उपकरणों का वर्णन मिलता है और ८ विभिन्न प्रकार की शल्य चिकित्साओं का वर्णन भी है। १. छेद्य (छेदन हेतु) २. भेद्य (भेदन हेतु) ३. लेख्य (अलग करने हेतु) ४. वेध्य (शरीर के हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए) ५. ऐश्य (नाडी के घाव ढूंढने के लिए) ६. अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए) ७. विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए) ८. सीव्य (घाव सिलने के लिए)।

सुश्रुत संहिता में प्लास्टिक सर्जरी का भी विस्तृत वर्णन किया गया है। जयपुर के डॉ. विजय दया ने प्लास्टिक सर्जरी के एक प्रयोग का वर्णन किया है लगभग २०० वर्श पूर्व १७९२ में टीपू सुल्तान और मराठों के बीच हुए युद्ध में चार मराठा सैनिकों तथा गाडीवान के हाथ और नाक कट गई। साल भर बाद गाडीवान और सैनिकों को पूणें केण्क कुम्हार ने शल्य चिकित्सा द्वारा नई नाक लगा दी। वह कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने के साथ-साथ कटे मानव अंगो को जोडने में भी कुशल था। वह शरीर से चमडी निकाल कर उससे कटे फटे अंगो की मरम्मत करने में माहिर था। इस शल्य चिकित्सा की पूरी प्रक्रिया व चित्र डॉ. थामस क्रसो तथा जेम्स फिण्डले ने अपनी रपट मद्रास गजट में छापी।

महाभारत में वर्णित कौरव जन्म की कथा से प्रेरित होकर डॉ. बालकृश्ण गणपत मातापुरकर ने बीज कोशिका से नवीन अंग के शरीर के अंदर ही निर्माण की तकनिक खोज ली और १९९६ में इसका अमरिकी पेटेंट भी लिया। इनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन उल्लेंखों को उपेक्षा से न देखते हुए ऐसा मानना चाहिए कि उनमें महान सत्य निहित हो सकता है।

सर जगदीश चन्द्र बोस ने भी १९०१ में जीवन के एकत्व को प्रकट किया कई यंत्र बनाए फोटो सिनथेटिक रेकार्डर एवं नवीन यंत्र केस्कोग्राफ बनाया जो संवेदनाओं को १ करोड़ गुना अधिक बडा कर बताता था। ये यंत्र पौधों पर लगाने से दिन भर पौधे ने क्या अनुभव किया ये पता चल जाता है। डॉ. विश्वेश्वरैया जिन्होंने स्वचालित बाढ के फाटकों का निर्माण किया तथा ब्लाक सिंचाई प्रणाली का श्री गणेश किया। डॉ श्रीनिवास रामानुजन जिन्होंने ४ हजार से अधिक मौलिक प्रमेय दिये हैं। १८८८ में जन्में डॉ चनद्रशेखर वेंकटरमण जो रमण प्रभाव के लिए जाने जाते हैं, हमारी अमूल्य धरोहर है। वर्तमान और पुराकालीन वनस्पतियों तथा जीवाश्म पौधों पर खोज करने वाले डॉ. बीरबल साहनी ने भारत की उज्जवल विज्ञान परम्परा को और उंचा किया। १८९३ में डॉ. मेघनाद साहा प्रसिद्ध खगोल भौतिक वैज्ञानिक जिन्होंने अपनी खोजो और प्रयोगो से विश्‍व के वैज्ञानिक वर्ग में तहलका मचा दिया था। उन्होंने १९२० में सिद्ध किया की उच्च ताप तथा अल्प दाब पर सूर्य के वर्णमण्डल के परमाणु आयोनाइज्ड होते हैं और इसी कारण सूर्य के वर्णमण्डल के रश्मि चित्रों में कुछ रेखाएं मोटी दिखाई देती हैं। १९८३ में चन्द्रशेखर सीमा की खोज हेतु नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. सुब्रह्मण्यम चन्द्रशेखर विश्व विज्ञान में जाना माना नाम है। जिन्होने भवेत वामन तारों कृश्ण विवर तथा तारकीय संरचना एवं विकास एवं तारकीय गति की पर अपने शोध संसार के सम्मुख प्रस्तुत किये। आधुनिक भारत में अंतरिक्ष विज्ञान के कर्णधार डॉ. विक्रम अम्बालाल साराभाई जिन्होने भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के क्षैत्र में उन गीने चुने देशों की पंक्ति में ला खडा किया जहॉ केवल विकासित राष्‍ट्र ही होते थे। रोहिणी और मेनका नामक भारतीय रॉकेट श्रृंखला के जनक डॉ. साराभाई ही थे। १९७५ में पहला उपग्रह आर्यभट्ट भी इन्हीं के मार्गदर्शन में अंतरिक्ष में भेजा गया था। इन्होने अहमदाबाद में भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना की। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का विस्तार कर देश को अंतरिक्ष युग में ले गये। इन्हीं की परम्परा को आगे बढाते हुए मिसाईल मेन भारतरत्न मा० ए० पी० जे० अब्दुल कलॉम जी ने भारतीय तकनिक से हर प्रकार के प्रक्षेपास्त्र का निर्माण एवं परमाणु परीक्षण कर भारतीय सेना को विश्व की श्रेष्‍ठ सेनाओं में सम्मिलित किया है। चन्द्रयान के प्रक्षेपण के उपरान्त तो भारत उन गीने चुने देशों में सम्मिलित हो गया है, जिनका झण्डा चन्द्रमा पर फहरा रहा है। चन्द्रमा पर पानी की खोज करने का श्रेय भी चन्द्रयान अभियान के प्रमुख एम. अन्नादुराई एवं उनके दल को जाता है। स्वतंत्रता के उपरान्त् स्थापित विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों और वैज्ञानिको के अथक प्रयत्न के कारण ही भारत दूर संवेदी उपग्रह, प्रक्षेपण यान, प्रक्षपास्त्र आदि में भारत आत्म निर्भर है परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों में भी भारत का विशिष्‍ठ स्‍थान है। भारत वैज्ञानिक डॉक्टर इंजीनियर्स, एवं कम्पयूटर के तकनिकी विशेषज्ञों की मांग आज पूरी दुनिया में सर्वाधिक है। अत: हम कह सकते हैं कि विश्व विज्ञान में भारत की अभूतपूर्व देने है और विशिष्‍ठ स्थान भी है। और हम पुन: विश्वगुरु जैसा स्थान पा सकते है।

1 टिप्पणियाँ:

  1. इस अतिउत्तम लेख को पढ़कर यह कह सकता हूँ कि भारत में ही मनुष्यों ने प्रथम विज्ञान तथा कला का सूर्योदय देखा था। प्राचीन वैदिक स्मृद्ध भारतीय विज्ञान को विस्तार से जानने के लिए यह भी देखें :-
    http://vedicpress.com/entire-science-in-vedas-in-hindi/

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