वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, क्योकि माना जाता है कि इसके मन्त्रों को परमेश्वर
(ब्रह्म) ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे।
(ब्रह्म) ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे।
वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है। वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं।
वेदों का महत्व: भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसे पुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं। न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है। मानव-जाति और विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से ही मिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तक नहीं है। आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है। वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद.
द्वापरयुग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इन तीन शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शैलियाँ होती है; जो पद्य (कविता), गद्य और गानरुप से प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चित अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा ‘ऋक्’ है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मक मन्त्र ‘यजुः’ कहलाते हैं। और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी’ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को ‘श्रुति’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘आम्नाय’ भी है।
द्वापरयुग की समाप्ति के समय वेदपुरुष भगवान् नारायण के अवतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध है। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक - इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीत वेदों के प्रचार व संरक्षण के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हो रही है। शाखा के नाम से सम्बन्धित व्यक्ति का उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्रचार एवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है।
वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है। अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको ‘ऋत्विक’ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चार गण हैं। होतृगण, अध्वर्युगण, उद्गातृगण तथा ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं। वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं।
• ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘ऋक्’ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमें होतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भी कुछ मन्त्र हैं। (इसमें देवताओं का आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं. यही सर्वप्रथम वेद है. यह वेद मुख्यतः ऋषि मुनियों के लिये होता है.
• यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मक’ मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद’ है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क) शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतः क्षत्रियो के लिये होता है.
• सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेद है। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं) (यह वेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है.
• अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतः इसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्य विषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षि द्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नाम अथर्ववेद है। इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिये मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतः व्यापारियो के लिये होता है.
वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरॊं में खड़ी तथा आड़ी रेखायें लगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित के नाम से अभिगित किया गया हैं। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है।
हर वेद के चार भाग होते हैं । पहले भाग (संहिता) के अलावा हरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं । कुल मिलाकर ये हैं : संहिता (मन्त्र भाग), ब्राह्मण-ग्रन्थ (गद्य में कर्मकाण्ड की विवेचना), आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे के उद्देश्य की विवेचना), उपनिषद (परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन). ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं जो हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं । बाकी ग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं।
आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द-राशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती है:
• याज्ञिक दृष्टिः इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं का विस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा, यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखा और अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है। उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैः ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- (शाकल-शाखा और शांखायन शाखा), यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- (तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा), शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- (माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा), सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- (कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा), अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- (शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा). उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है- शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
• प्रायोगिक दृष्टिः इसके अनुसार प्रत्येक शाखा के दो भाग बताये गये हैं। मन्त्र भाग- यज्ञ में साक्षात्-रुप से प्रयोग आती है तथा ब्राह्मण भाग- जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द), कथा, आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की प्रवृत्ति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने की पद्धति बताना, उसकी उपपत्ति और विवेचन के साथ उसके रहस्य का निरुपण करना है।
• साहित्यिक दृष्टि: इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इन चार भागों में है।
वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष- इन ६ अंगों के ग्रन्थ हैं। प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।
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